औरत और ज़ुल्म दोनों का बहुत ही गहरा रिश्ता रहा है। मानव सभ्यता का विकास जैसे-जैसे रफ्तार पकड़ता गया उसी के साथ ही औरत का शोषण भी बढ़ता गया। पूर्व वैदिक काल के मातृ सत्तात्मक समाज ने करवट ली और सत्ता पुरुष प्रधान होते ही औरत की स्थिति बद से बदतर होती चली गयी। महिला शक्ति से परिचित पुरुष ने उसे दबाना शुरु किया, नारी को शिक्षा,धार्मिक अनुष्ठान, रणकौशल आदि शक्ति प्रदायी विधाओं से बे दखल कर घर की चार दीवारी में बंद करना शुरू किया। पुरूष के बिना उसका अस्तित्व बेमानी समझा जाने लगा।
इसके बाद के युग की तस्वीर सती प्रथा, पर्दा प्रथा आदि जैसे रोगों से ग्रस्त हो गया।
सन 1947 में परतंत्र देश की तकदीर बदली,भारत अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुआ। लेकिन सिर्फ देश आजाद हुआ औरत को गुलामी से आजादी नहीं मिली। स्वतंत्र भारत के सभी राजनीतिकों ने अपने-अपने समय में औरत की स्थिति को मुद्दा बनाकर अपना गला खूब साफ किया और उससे अपना वोट बैंक भरते रहे।
इक्कीसवीं सदी आते-आते पूरा वैश्विक परिदृश्य बदल चुका है। आज की नारी सशक्त है,उसने तमाम क्षेत्र में अपनी बुलन्दी के झंडे गाड़ दिये हैं। आज विज्ञान के इस युग में सबकुछ बदल चुका है। “सबकुछ” महिला शोषण के तरीके भी। आज शोषण घर से बाहर बीच चौराहे होने लगा है। और जो सबसे बड़ा बदलाव है वो ये कि आज की सशक्त नारी ने औरत शोषण की जिम्मेदारी भी खुद ही सँभाल ली है। वह खुद ही इन कर्मों को अंजाम देती है। अब आप इसे युगों तक की उसकी शोषित मानसिकता का परिणाम समझें या नारी सशक्तिकरण की उपलब्धि। पर यह सच है कि वर्तमान में महिला हिंसा, दहेज़, हत्या या भ्रूण हत्या चाहे शोषण का स्वरूप जो भी हो पर इसके पीछे हाथ स्वयं औरत का ही होता है। औरत ने अपनी ताकत का कद इतना बढा लिया है कि जन्म लेने से लेकर किसी के जीने तक का हक भी वह तय करने लगी है।
आज लिंगानुपात जिस तरह बढ रहा है नि:संदेह भविष्य में उसका परिणाम भी औरत को ही भुगतना पड़ेगा। कन्या जन्म के घटते दर की भयानकता को देखकर मन में बरबस एक सवाल उठता है नारी शोषण कहाँ तक? कब तक?