सोमवार, 3 मार्च 2008

“नारी” शोषित से शोषण तक ।

औरत और ज़ुल्म दोनों का बहुत ही गहरा रिश्ता रहा है। मानव सभ्यता का विकास जैसे-जैसे रफ्तार पकड़ता गया उसी के साथ ही औरत का शोषण भी बढ़ता गया। पूर्व वैदिक काल के मातृ सत्तात्मक समाज ने करवट ली और सत्ता पुरुष प्रधान होते ही औरत की स्थिति बद से बदतर होती चली गयी। महिला शक्ति से परिचित पुरुष ने उसे दबाना शुरु किया, नारी को शिक्षा,धार्मिक अनुष्ठान, रणकौशल आदि शक्ति प्रदायी विधाओं से बे दखल कर घर की चार दीवारी में बंद करना शुरू किया। पुरूष के बिना उसका अस्तित्व बेमानी समझा जाने लगा।

इसके बाद के युग की तस्वीर सती प्रथा, पर्दा प्रथा आदि जैसे रोगों से ग्रस्त हो गया।

सन 1947 में परतंत्र देश की तकदीर बदली,भारत अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुआ। लेकिन सिर्फ देश आजाद हुआ औरत को गुलामी से आजादी नहीं मिली। स्वतंत्र भारत के सभी राजनीतिकों ने अपने-अपने समय में औरत की स्थिति को मुद्दा बनाकर अपना गला खूब साफ किया और उससे अपना वोट बैंक भरते रहे।

इक्कीसवीं सदी आते-आते पूरा वैश्विक परिदृश्य बदल चुका है। आज की नारी सशक्त है,उसने तमाम क्षेत्र में अपनी बुलन्दी के झंडे गाड़ दिये हैं। आज विज्ञान के इस युग में सबकुछ बदल चुका है। सबकुछ महिला शोषण के तरीके भी। आज शोषण घर से बाहर बीच चौराहे होने लगा है। और जो सबसे बड़ा बदलाव है वो ये कि आज की सशक्त नारी ने औरत शोषण की जिम्मेदारी भी खुद ही सँभाल ली है। वह खुद ही इन कर्मों को अंजाम देती है। अब आप इसे युगों तक की उसकी शोषित मानसिकता का परिणाम समझें या नारी सशक्तिकरण की उपलब्धि। पर यह सच है कि वर्तमान में महिला हिंसा, दहेज़, हत्या या भ्रूण हत्या चाहे शोषण का स्वरूप जो भी हो पर इसके पीछे हाथ स्वयं औरत का ही होता है। औरत ने अपनी ताकत का कद इतना बढा लिया है कि जन्म लेने से लेकर किसी के जीने तक का हक भी वह तय करने लगी है।

आज लिंगानुपात जिस तरह बढ रहा है नि:संदेह भविष्य में उसका परिणाम भी औरत को ही भुगतना पड़ेगा। कन्या जन्म के घटते दर की भयानकता को देखकर मन में बरबस एक सवाल उठता है नारी शोषण कहाँ तक? कब तक?

शनिवार, 1 मार्च 2008

काश! ये चुनावी भूत हमेशा सवार रहे।

यूपीए सरकार के इस पाँचवें बजट पर रंग चाहे चुनाव का ही चढा हो पर इसका लाभ तो नि:संदेह जनता को मिला है। लोकलुभावन बजट का पासा सियासी चाल के तहत फेंका गया है, जिसके कारण देर से ही सही बजट आम जन के हक में है। जैसा की पहले से ही अनुमानित था सरकार ने किसानों को कर्ज माफी देकर विपक्षियों की नींद उड़ा दी है। इस कूटनीतिक कदम से वित्तमंत्री ने जहां एक तरफ कृषि के निम्न विकास दर पर परदा डाल दिया है। वहीं एक के बाद एक लगातार आत्महत्या के शिकार होने के कारण, असंतोष से व्याप्त किसानों को अपना मुरीद बना लिया है। सिर्फ कर्ज माफी से भारतीय कृषि क्षेत्र में कितनी हरियाली आयेगी यह तो भविष्य ही बतायेगा, पर फिलहाल जिस तरह से किसानों में खुशी देखी जा रही है उससे आने वाले चुनाव में किसानों का हाथ कांग्रेस के साथ ज़रूर लहराता दिख रहा है। बजट 2008 में मध्यम वर्ग पर भी खासा धयान दिया गया है, एक तरफ आम वेतन भोगी के लिये जहां टैक्स छूट की सीमा १.१० लाख से १.५० लाख कर उनकी आय में बचत की गई है, वहीं छोटी कार, वाइक, इलेक्टरोनिक सामान, दैनिक उपयोग के सामानों को सस्ता कर उनकी जिंदगी विकासशील देश की पटरी पर सरपट दौरा दी है। युवा वर्ग और विद्यार्थियों के लिये उच्च शिक्षा को तवज्जो दी गई है। साथ ही अल्पसंख्यक मुस्लिम वर्ग को ध्यान में रखते हुए मदरसों को भी आधुनिक बनाने की बात कही गई है। अनुसूचित जाति जनजाति क्षेत्र में नवोदय विद्यालय खोलने की योजना है। कागज़ और कलम के मूल्यों को घटाने के साथ ही शिक्षा के क्षेत्र में कई कारगर कदम उठाया गया है। सर्व शिक्षा अभियान मिड डे मिल के लिये और अधिक पैसे देने की बात कही गई है। स्वास्थ क्षेत्र को नजर मैं रखते हुए दवाइयों पर सर चार्ज कम किया गया है।

अपने चुनावी बजट में वित्त मंत्री महिलाओं को भी नहीं भूले। वेतन भोगी महिलाओं के लिये टैक्स छूट की सीमा १.८० लाख रुपया कर दिया गया है। बुजुर्ग व्यक्तिओं के लिये यह छूट सीमा २.२५ लाख रुपया है।

पिछले कई साल से खाद्य वस्तुओं में लगी आग ने चुल्हे कि लौ कम कर दी थी। दाल, डेयरी उत्पाद, चाय और कोफी जैसे वस्तुओं के दाम कम किये जाने से अब राहत मिलेगा।

समाजिक क्षेत्र, रोज़गार, ग़रीबी उन्मूलन, सिचाई आदि के लिये कोई नई नीति अपनाये बगैर इन क्षेत्रों में रुपये का आवंटन बढा दिया गया है।

इसी तरह चुनाव के बहाने ही सही नेता गन अपने घर की साइनींग करने से फ़ुरसत पाकर कभी कभार यदि जनता जनार्दन की भी सोच लें तो शायद स्थिति कुछ बेहतर हो। खैर, फिलहाल तो यह देखना है कि कुल मिलाकर कितनी बातों पर अमल होगा, कहाँ से पैसा उठाकर कहाँ भरा जायेगा ये तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। अभी तो सबकी ज़ुबान एक ही बात कह रही है; काश ये चुनावी भूत हमेशा सवार रहे।